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होली की परम्परा

डिकौली गांव से शुरू हुई थी होलिका दहन की परंपरा उरई। होली का त्यौहार आते ही पूरा देश रंग और गुलाल की मस्ती में सराबोर हो जाता है लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि जालौन जिले के अन्तर्गत बेतवा के प्रसिद्ध सलाघाट के उस पार गांव डिकौली से जो कि झांसी जिले में आता है। पूरी दुनिया को रंगीन करने वाले इस पर्व की शुरुआत हुई थी। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में डिकौली के नजदीक एरच कस्बा त्रेतायुग में गवाह रहा है हिरंण्याकश्यप की हैवानियत का, भक्त प्रह्लाद की भक्ति का, होलिका के दहन और नरसिंह के अवतार का। होली यानी रंगों के पर्व का प्रारंभ होलिका दहन से माना जाता है। शास्त्रों और पुराणों के मुताबिक वर्तमान में झासी जिले का एरच कस्बा त्रेतायुग में एरिकच्छ के नाम से प्रसिद्ध था। यह एरिकच्छ दैत्यराज हिरण्यकश्यप की राजधानी थी। हिरण्यकश्यप को यह वरदान प्राप्त था कि वह न तो दिन में मरेगा और न ही रात में तथा न तो उसे इंसान मार पायेगा और न ही जानवर। इसी वरदान को प्राप्त करने के बाद खुद को अमर समझने वाला हिरण्यकश्यप निरंकुश हो गया लेकिन इस राक्षसराज के घर जन्म हुआ प्रहलाद का। भक्त प्रहलाद की भगव...

बुंदेली लोक साहित्य का इतिहास

  लोक साहित्य मनुष्यता की  सा मसिक  अभिव्यक्ति का प्रतीक होते हैं जिनसे अंचल विशेष की भाषा बोली में लोक सांसे लेता है और अपनी जीवन प्रवेश इतिहास समकाल रितु धार्मिक सांस्कृतिक राजनैतिक व्यक्तिगत एवं समस्त विगत भावनाओं को प्रकट करता है बुंदेलखंड अंचल भी इसका अपवाद नहीं है प्राचीन काल में  दशार्ण  और चीन  देश के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र मध्य काल से बुंदेलखंड नाम से विख्यात हुआ बुंदेलखंड में लोक की अभिव्यक्ति की सुधीर परंपरा रही है जिसके सूत्र तेरहवीं शताब्दी से मिलने शुरू हो जाते हैं               भारत के हृदय के रूप में विद्यमान मध्य भारत का बुंदेलखंड प्रांत और लोक साहित्य की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है भौगोलिक दृष्टि से उत्तर और दक्षिण भारत को जोड़ने वाले द्वार के तौर पर अवस्थित इस क्षेत्र को अनेक बार विदेशियों के आक्रमण का दंश सहन करना पड़ा  फलतः   यहां के निवासियों तथा इसके लोक साहित्य में  वीरत्व  का भाव स्वभाविक रूप से  फलित हुआ अंतिम बुंदेला शासक  देव के शासनकाल में जन कवि जगनिक ने ...

सन्त कबीर

 माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर। कर का मनका छाँड़ दे, मनका-मनका फेर ।। अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि माला फेरते- फेरते सारा जीवन व्यतीत हो गया,परन्तु कभी भी मन से माला नहीं फेरी इसलिए हाथ के मोती को छोड़ देऔर मन के मोती को जप।         सतगुरु हम सूँ रीझकर कह्या एक प्रसंग।          बरस्याँ बादल प्रेम का, भींज गया सब अंग ।। पाणीं ही  ते  हिम  भया, हिम हुय गया बिलाय। जो कछु था सोई भया, अब कछु कहा न जाय ।।

इन्सान की पहचान

किसी के काम जो आये, उसे इन्सान कहते हैं। पराया दर्द अपनाये, उसे इंसान कहते है।। ये दुनियाँ एक उलझन है, कहींं धोखा कहीं ठोकर। कोई हँस-हँस के जीता है, कोई जीता है रो-रोकर,  कोई जीता है रो-रोकर। जो मुश्किल में न घबराये, उसे इन्सान कहते हैं। पराया दर्द अपनाये उसे इन्सान कहते हैं।। अगर गलती रुलाती है,तो राहें भी दिखाती है। मनुज गलती का पुतला है,वो अक्सर हो ही जाती है,वो अक्सर हो ही जाती है। जो कर ले ठीक गलती को,उसे इन्सान कहते हैं।  पराया दर्द अपनाये,उसे इन्सान कहते हैं।। योंं भरने को तो दुनियाँ में, पशु भी पेट भरते हैं।     जो रखते दिल इंसाँँ का, वो नर परमार्थ करते हैं,वो नर परमार्थ करते हैं।  पथिक जो बाँटकर खाए, उसे इन्सान कहते  हैं।   पराया दर्द अपनाये, उसे इन्सान कहते हैं ।। किसी के काम जो आये,उसे इन्सान कहते हैं । पराया दर्द अपनाये, उसे इन्सान कहते  हैं।।