सन्त कबीर
माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।
कर का मनका छाँड़ दे, मनका-मनका फेर ।।
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि माला फेरते- फेरते सारा जीवन व्यतीत हो गया,परन्तु कभी भी मन से माला नहीं फेरी इसलिए हाथ के मोती को छोड़ देऔर मन के मोती को जप।
सतगुरु हम सूँ रीझकर कह्या एक प्रसंग।
बरस्याँ बादल प्रेम का, भींज गया सब अंग ।।
पाणीं ही ते हिम भया, हिम हुय गया बिलाय।
जो कछु था सोई भया, अब कछु कहा न जाय ।।
Comments
Post a Comment